Tuesday, May 29, 2007

विचलित मन के उदगार

एहसास

ये क्या हो गया,
मैं हवा हो गया ।
समंदर की लहरों से पूछो,
मैं कहॉ खो गया ।
आयी एक आंधी ,
संसार सुनसान हो गया।
मची भयंकर तबाही ,
अपने घर मैं मेहमान हो गया ।
कभी एक तमन्ना थी ,
कभी था एक सपना ।
कभी थी कोई जो ,
कहती थी मुझे अपना ।
ईन आंखों से भी आँसू ढलते थे ,
ईन लबों पर भी मुस्कान होती थी ।
इन्सान के जिस्म मॆं ,
मैं बुत हो गया ।
नज़रों से परे ,
आंखों के पार ।
महसूस करो मुझे ,
मैं एक एहसास हो गया ।

2 comments:

Narayanan B said...

Though it is a tale of lamentation, the lines are very beautiful and poetic.

I liked the 'apne ghar me mehmaan hogaya' part the best.

Unknown said...

thanks nari...ya, it is a tale of lamentation from a heart which feels :

lonely while walking through the crowd,
Hear nothing however loud.
Nothing I can see,
except beautiful thee.